बराबरी का सपना
स्वतंत्र कुमार सक्सेना
भारत के मध्य में बसा बुंदेलखण्ड, विध्याचल पर्वत व इसके बीच बहने वालीं नदियां इसकी शोभा हैं। कवि ने इसकी सीमा इन शब्दों में बांधी है-
इत चम्बल उत नर्मदा इत जमुना उत टौंस
छत्रसाल सौं लड्न की रही न काहू सौं हौंस
महाराजा छत्रसाल ने मराठा पेशवा बाजीराव को अपना पुत्र मान कर अपने राज्य का एक तिहाई भाग उन्हें सौंप दिया था। अत: अट्ठारहवीं सदी व उन्नीसवीं सदी के पूर्वाध में बुंदेलखण्ड में बुंदेले राजपूत व मराठे राज कर रहे थे। कालान्तर में ये दोनों ही अंग्रेजों के आधीन हो गये अत: अंग्रेजी राज में बुंदेल खण्ड की जनता की गर्दन पर सत्ता का दोहरा हुआ था एक तो अंग्रेजों का दूसरा रियासती राजाओं महाराजाओं का।
बुंदेलखण्ड की अधिकतर भूमि रांकड् है जो कम नमी सोखती है, जल्दी सूख जाती है नीचे ग्रेनाइट चट्टान है। क्षेत्र भी पहाड़ी है। अत: जमीन खेती योग्य कम है जो है वह भी ज्यादा उपजाऊ नहीं है।
महुआ मेवा बेर कलेवा गुलगुच बड़ी मिठाई
ये सब बातें सोच लेव चौरसी करो सगाई
उपरोक्त पंक्तियां क्षेत्र की स्थिति का बयान करती हैं अनििश्चत व कम वर्षा प्रत्येक चार पांच बाद सूखा,अकाल व भूख्मरी के हालात, बेरोजगारी व अर्धबेरोजगारी इस क्षेत्र में व्याप्त है।
साल करौंटा लै गई राम बांध गए टेक
बेर मकोरा जौ कहं मरन न दैंहों एक।
अकाल की भयावहता की अभिव्यक्ति है। इसी कारण हर वर्ष सैकड़ों की संख्या में मजदूर बाहर रोजगार की तलाश में जाते हैं।
श्रावण ‘शुक्ला सप्तमी, गरजे आधी रात।
तुम जइयो पिय मालवा हम जैहें गुजरात।
परम्परा से चैतुआ बन कर जाते किसान मजदूरों की बात है। उस पर सामन्तीय परिवेश ने जनता को अशिक्षा गरीबी बेरोजगारी की भयावह स्थिति में धकेल दिया है। ऊपर से अशिक्षा के कारण अंधविश्वास रूढ़ीवाद जातिगत भेदभाव ऊंचनीच छुआछूत से समाज ग्रस्त है। ऐसी बात नहीं है कि उपरोक्त बातें इतिहास की हैं अब हालात बदल गए हैं वरन वोटों की राजनीति के कारण चुनावों ने हमारे समाज में साम्प्रदायिक और जाति युद्ध का जहर घोल दिया है। सामाजिक अलगाव व परस्पर घृणा बढ़ गये हैं।
अभी कुछ वर्ष पहले छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस रेल से भोपाल से ग्वालियर आते समय ट्रेन के डिब्बे में एक सहयात्री से बात हुई जो दिल्ली जा रहे थे।
मैं-‘भैया कहां जा रहे?’
वे- ‘दिल्ली आ जारये।‘
मैं- ‘काये?’
वे बोले-‘अब चार महीना बैठ के खाओ, जिनसें लओ हतो उनै देने न परहै।‘
मैं- ‘काये, इतै गांव में, कै गांव के ढिगां ‘शहर में कोनऊ रोजगार नईंया?’
वे बोले- ‘भैया साब देस में सब कछू है पै हम गरीबन खां नईंया, थोरी बहुत जंगा-जमीन है, सो बड़े आदमी भैंसें-बैला घुसा देत। ठांड़ी फसल चरा देता, कब्जा कर लेत। भावई है।‘
मैं-‘ तो पुलिस कचहरी नईं गये?’
वे बोले-‘ सबरे पैसा लगत कॉं धरो और फिर कचहरी के चक्कर काटें कै मजूरी करें। फिर अहलकार सब बिनईं की कहत और दाऊ साहब खुपडिया फोरवे ठांडे रहत। गरीवन को तो सगो भी दुश्मन हो जात।
यही वो सपने थे जो हमें गांधी व नेहरू ने दिये थे पहले कांग्रेस पार्टी देश में पढ़े लिखे मध्यम वर्गीय व व्यापारी लोगों की पार्टी थी, जो अंगेज सरकार को मात्र ज्ञापन देती थी। महात्मा गांधी ने इसे सन उन्नीस सौ बीस व इक्कीस म्रें इसे जनता की पार्टी बना दिया। जन आंदोलनें की शुरूआत की। आजादी के बाद देश् में अपना राज होगा। हम गुलाम नहीं होंगे। परन्तु राजे महाराजे तो स्वदेश्ी थे, धर्म रक्षक थे उनका राज्य क्या बना रहेगा? कैसा होगा अपना राज? इसी सवाल को हल करने आया समाजवाद का विचार। समाजवादियों ने कहा आजादी में सब बराबर होंगे। परंतु बराबरी की बात तो हमारे देश् में मध्य युग में वैष्णव भक्ति आंदोलन में भी उठी थी।
जाति पांति पूंछे न कोई हार को भजे सो हरि को होई।
चैतन्य महा प्रभू बाबा कबीर दास,श्री गुरू नानक व अन्य बहुत से भक्त संत श्री नाम देव नरसी भगत मीरा बाईके नाम उल्लेखनीय हैं। उन्होंने देश् में अलख जगाई व धर्म में सबको भक्ति का अधिकार दिलाया। इसमें निगुर्ण शाखा के संत आगे-आगे रहे परंतु यह समानता मात्र भक्ति के क्षेत्र तक सीमित रही। ऐसे में उन्नीसवी सदी में जर्मनी के महत्व पूर्ण समाजवादी विचारक कार्ल मार्क्स का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध है उन्होंने सारी दुनिया को इस विचार से हृदयंगम करा दिया। कार्ल् मार्क्स के अनुयायी समाजवादी भारतीयों ने 1921 में ही पार्टी बनाई व प्रचार किया। कानपुर में 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की गईं। जिसमें प्रमुख संस्थापक सर्वश्री, मौलाना हसरत मोहानी, सत्य भक्त भार्गव, गणेश ‘शंकर विद्यार्थी थे।
श्री गणेश शंकर विद्यार्थी मध्य प्रदेश के गुना जिले से थे। डेमोक्रेटिक समाजवादी विचार जिसके एक महत्वपूर्ण समर्थक भारतीय पंडित जवाहर लाल नेहरू भी थे। कांग्रेस के अंतर्गत कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना सन 1934 में की गई। समाजवाद मात्र धार्मिक व सामाजिक समानता तक ही अपने को सीमित नहीं रखता। देश के मूर्धन्य साहित्यकार- उपन्यासकार श्री मुंशी प्रेमचन्द के अनुसार आर्थिक समानता के बिना सामाजिक समानता बेईमानी है।‘
समाजवाद आर्थिक, सामाजिक व लैंगिक समानता सबको धार्मिक स्वतंत्रता की बात करता है। सबको सस्ती व मुफ्त शिक्षा सबको रोजगार के अवसर सबको स्वास्थ्य का लाभ आवश्यक चिकित्सा अभिव्यक्ति की आजादी लैंगिक-बराबरी कोई किसी से छोटा बड़ा नहीं। ये सपने समाजवाद ने दिये जिनके लिये देश के व साथ-साथ बुंदेलखण्ड के कुछ सबसे बुद्धिमान संवेदनशील लोगों ने अपने प्राण व जीवन दांव पर लगा दिये सुखमय जीवन त्याग दिया। सारे देश में बुंदेलखण्ड जेसे राजशाही से कराहते क्षेत्र के लिये महत्वपूर्ण प्रश्न था, भूमि सुधार, जमींदारी उन्मूलन अधिकतर जनता या तो भूमिहीन थी या उसके पास बहुत कम भूमि थी। कमर तोड़ लगान उस पर भी तरह तरह के टेक्स ऊपर से बेगार, शिक्षा का जनसामान्य को कोई अवसर नहीं, चिकितसा की नाम मात्र की व्यवस्था, प्रगति के कोई अवसर नहीं। पूर्वजन्म, भाग्य, कर्मफल, अंधविश्वास से जनता के दुखों और पीड़ाओं को तर्कसंगतता प्रदान की जाती, आज भी स्थिति बहुत ज्यादा बदली हुई नहीं है। छुआछूत व जातिभेद कोढ़ में खाज है। ऐसे में समाजवाद की बात बहुत ही खतरनाक व साहस का काम था। पहले तो लोगों को इस बात पर विश्वास ही नहीं होता था, यदि फिर भी हमारे आन्दोलन कर्ताओं के प्रयास से कुछ लोग संघर्ष में साथ आ जाते थे तो ऐसे लोगों के लिये सरकारी जासूस क्रूर पुलिस थी जिसके लिये कोई नियम रोक नहीं थे खुली छूट थी। 14 जनवरी 1931 को छतरपुर जिले में चरण पादुका स्थान पर स्व. श्री सरजू दउआ के सभापतित्व में सभा का आयोजन किया गया। वे अपने गिरफ्तार साथियों श्री रामसहाय तिवारी व अन्य साथियों की रिहाई की मांग कर रहे थे। पुलिस ने घेर लिया व गोली-बारी की 21 आदमी ‘शहीद हुए व 26 घायल हुये। टीकमगढ़ जिले में तत्कालीन ओरछा रियासत में 39 सितम्बर 1973 को स्व. श्री मौलाना मुख्त्यार अहमद के नेतृत्व में झण्डा सत्यागृह हुआ, उसका परम्परागत रूप से राजसी शान के अनुरूप टीकमगढ़ की रियासती पुलिस ने लाठी-डण्डों से भरपूर स्वागत किया, बेहोश व घायल सत्याग्रही दीबरिया नाके पर फिंकवा दिये गये। इतना ही नहीं जत्थे का स्वागत करने वाले स्व. श्री प्रेम नारायण खरे व स्व. श्री चतुर्भुज पाठक को भी खतरनाक मान कर जेल में बंद कर दिया गया। 8 फरवरी 1939 को टीकमगढ़ जिले के ग्राम थोना में श्री लाला राम बाजपेयी के नेतृत्व में झण्डा फहरान के कारण पुलिस ने कार्यकर्ताओं की लाठियों से पिटाई की गोली चलाई। जुलूसों पर मात्र लाठी-गोली चलाने तक ही रियासती पुलिस की वीरता सीमित नहीं थी, वरन वह दमन के अन्य उपायों में भी निपुण थी। रियासत से बाहर करना, जमीन-जायदाद जप्त करना, परिजनों को नौकरी से निकाल कर दबाव बनाना सारे ही साधन स्वतंत्रता सेनानियों को आंदोलन से विमुख करने के लिये अपनाये जाते थे। अमर ‘शहीद श्री नारायण दास जी खरे एक निशस्त्र अहिंसक स्वतंत्रता सेनानी थे जो ओरछा सेवक संघ व फिर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता थे। उन्होंने 1937 से ही स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया। कई बार पीटे गये सड़कों पर घसीटे गये पर उफ तक न की। आर्थिक संकट तो निरंतर बना ही रहता था पर जब उन्होंने किसान मजदूरों के जनजागकर से मुंह न मोड़ा तो उनकी षडयंत्र पूर्वक हत्या कर दी गई। उनसे सामंतवादी ‘शक्तियां इतनी आतंकित थीं यह इससे जाहिर होता है कि उनके मृत ‘शरीर के टुकड़े – टुकड़े कर के पानी में फेंक कर नष्ट कर दिये गये पर ‘शहीदों की स्मिृति इस तरह मिटाना क्या संभव है। हमारे आजादी के स्वप्न को ओरछा सेवा संघ के वार्षिक अधिवेशन जो दिनांक 24-25 अप्रेल 1948 में अछरू माता पृथ्वीपुर में सम्पन्न हुआ, जिसका सभापतित्व स्वतंत्रता सेनानी स्व. श्री ‘श्याम लाल जी साहू ने किया में पढ़ी गई वार्षिक रिपार्ट का प्रस्ताव बखूबी प्रदर्शित करता है, रिपोर्ट के प्रेरणास्पद ‘शब्द हैं
प्रस्ताव क्रमांक- 2 बिन्दु-3
राजाओं के लिये बिना कोई कर्तव्य निश्चित किये व बिना काम के बड़ी-बड़ी रकमें देना व अन्य सुविधायें उपलब्ध कराना अनुचित है। इसके अलावा यह अधिवेशन यह निश्चित करता है कि हमें आगे वर्ग विहीन, वर्ण विहीन समाज की रचना करना है और इसके लिये किसान मजदूरों की सरकार कायम करना है। इसके लिये किसान मजदूरों को संगठित कर उन्हें उनके कर्तव्य और अधिकार बताये जायें, तदनुसार इस लक्ष्य को पाने के लिये आन्दोलन करें।
आजादी आई पर आजादी के दीवानों का सपना कब पूरा होगा। हमारे विचारक हमारे नौजवान, साहसी संवेदनशील शिक्षित जन इस पर विचार करेंगे व उन सेनानियों के निर्देश उनके प्रारंभ किये आन्दोलनों को जारी रखेंगे। यही हमारी उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। हम सारे बुंदेलखण्ड वासी एक नये बुंदेलखण्ड का सपना पूरा करेंगे। हम सब इसका संकल्प लेते हैं।
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स्वतंत्र कुमार सक्सेना
सवित्री सेवा आश्रम तहसील रोड़
डबरा (जिला-ग्वालियर) मध्यप्रदेश